इस खुफिया ऑपरेशन के दौरान इन पुलिसकर्मियों ने पूरी तरह से खुद को गांव के माहौल में ढाल लिया था। वे खेतों में कच्ची झोपड़ियां बनाकर रहते थे और वहीं अपना खाना बनाते थे। उनका भेष बिल्कुल साधारण ग्रामीणों जैसा था, जिससे उन पर किसी को शक नहीं हुआ। वे गांववालों से खुलकर घुलमिल गए और उनकी दिनचर्या में ऐसे रच-बस गए कि कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि वे असल में पुलिसवाले हैं।
इस खुफिया रणनीति के तहत, पुलिसकर्मी गांववालों से बातचीत करके धीरे-धीरे अहम जानकारियां इकट्ठा करने लगे। उनकी योजना इतनी सटीक थी कि जैसे ही किसी चोरी की गई बाइक के बिकने की खबर मिलती, वे गांव में जाकर सीधे बाइक बेचने वाले तक पहुंच जाते और उससे जानकारी जुटाते।
गांववालों के बीच इस तरह घुलमिलकर पुलिसकर्मियों ने न केवल हर एक कदम पर नजर रखी, बल्कि अपनी पहचान छुपाते हुए असामान्य परिस्थितियों में इस मिशन को अंजाम दिया।
नई दिल्ली से महाराष्ट्र के पुणे और आसपास के क्षेत्रों में मार्च के महीने में बाइक चोरी की घटनाएं अचानक बढ़ गईं, जिससे पुलिस के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन गई। चोरी की गईं बाइकों का कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था, और शहरी इलाकों में बढ़ती चोरी की घटनाएं पुलिस के लिए चिंता का विषय बन गईं।
इसी दौरान पुलिस के मुखबिरों ने एक अहम जानकारी दी कि मराठवाड़ा के धराशिव, लातूर, और बीड जिलों में कुछ सेकंड हैंड बाइक बेची गई हैं। यह जानकारी मिलते ही पुलिस को समझ आ गया कि यह काम किसी साधारण वाहन चोर का नहीं, बल्कि एक संगठित गिरोह का है।
यह गैंग बड़े ही सुनियोजित तरीके से शहरी क्षेत्रों से बाइक चुराकर उन्हें ग्रामीण इलाकों में बेच रहा था, जिससे पुलिस का पीछा करना मुश्किल हो रहा था। इस गिरोह ने अपने काम को इतनी सावधानी से अंजाम दिया कि पुलिस के पास कोई ठोस सबूत नहीं था। लेकिन मुखबिरों से मिली इस जानकारी ने पुलिस को इस जालसाजी के पीछे छुपे मास्टरमाइंड का सुराग खोजने के लिए एक नई दिशा दी।
पुलिस ने इस बड़े गिरोह को पकड़ने के लिए एक खुफिया ऑपरेशन का खाका तैयार किया। ऑपरेशन की कमान क्राइम ब्रांच की यूनिट-6 को सौंपी गई, और टीम का नेतृत्व असिस्टेंट इंस्पेक्टर सुरेश जयभाय को दिया गया। इस विशेष ऑपरेशन के लिए सात कुशल पुलिसकर्मियों का चयन किया गया, जिन्हें गांवों में घुसपैठ कर जानकारी जुटाने का काम सौंपा गया।
योजना के तहत, ये सभी पुलिसकर्मी सादी वर्दी में गांवों में पहुंचे और अपना हुलिया पूरी तरह बदल लिया। उन्होंने खुद को पास के जिलों के मजदूर बताकर गांववालों के साथ खेतों में काम करना शुरू कर दिया। उनकी झोपड़ियां भी बिलकुल साधारण थीं, और उनका रहन-सहन ऐसा था कि कोई नहीं सोच सकता था कि वे पुलिस वाले हैं।
इन पुलिसवालों का लक्ष्य था गांववालों के बीच पूरी तरह से घुलमिल जाना ताकि वे बिना किसी शक के स्थानीय लोगों से चोरी की गई बाइकों की गतिविधियों का पता लगा सकें। उन्होंने धैर्य और चतुराई से अपनी पहचान को गुप्त रखते हुए, गांव के माहौल में घुलने-मिलने का हर संभव प्रयास किया।
यह टीम खेतों में कच्ची झोंपड़ियां बनाकर डेरा डालती थी और खाना भी वहीं तैयार करती थी। उनका हुलिया इतना साधारण था कि किसी को शक नहीं होता था कि वे क्राइम ब्रांच के जवान हैं। जब भी किसी बाइक की बिक्री का सुराग मिलता, ये पुलिसवाले खरीदारी के बहाने गांव के बाजार में घूमकर तफ्तीश करते थे, स्थानीय लोगों से बातचीत करके जरूरी जानकारियां इकट्ठा करते थे।
अपनी तफ्तीश के दौरान, इस टीम को यह जानकारी मिली कि सेकंड हैंड बाइक अक्सर तब बेची जाती थीं जब गांव में साप्ताहिक पैठ या मेला लगता था। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस ने यह भी पाया कि शहरी इलाकों से चोरी की जाने वाली ज्यादातर बाइक्स वे थीं, जिनकी कीमत कम थी और जिन्हें गांव के लोग आसानी से कम पैसों में खरीद सकते थे। यह जानकारी पुलिस के लिए बेहद अहम साबित हुई, क्योंकि इससे उन्हें गिरोह के modus operandi का सही अनुमान लगाने में मदद मिली और आगामी कार्रवाई की योजना बनाने में सहूलियत हुई।
पुलिस का जाल: गांववालों को फंसाने के तरीके और रणनीतियाँ”
पुलिस का यह खुफिया ऑपरेशन करीब एक महीने तक चला, जिसके दौरान धीरे-धीरे गैंग के बारे में महत्वपूर्ण सुराग मिलने लगे। गैंग के सदस्य जब बाइक बेचने का सौदा करते थे, तो वे खरीदारों को बताते थे कि ये बाइक फाइनेंस कंपनियों ने लोन न चुकाने वालों से जब्त की हैं।
वे यह भी बताते थे कि फाइनेंस कंपनियां अब इन बाइक्स को सस्ते दामों पर बेचकर अपने घाटे को पूरा कर रही हैं। इस फर्जी कहानी में गांव वाले आसानी से आ जाते थे और उन्हें विश्वास हो जाता था कि ये बाइक्स एक अच्छे सौदे का हिस्सा हैं। इस तरह, गैंग ने अपनी धोखाधड़ी को अंजाम देने के लिए लोगों के विश्वास का फायदा उठाया, जिससे पुलिस को उन्हें पकड़ने में और अधिक मदद मिली।